नई दिल्ली : 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में वन अधिकार अधिनियम (FRA) को लेकर एक महत्वपूर्ण सुनवाई होने जा रही है, जो देश के 17 लाख आदिवासी परिवारों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। इस सुनवाई में ग्राम सभाओं के अधिकार, बेदखली पर रोक और वनाधिकार कानून की वैधता पर फैसला होने की संभावना है।
क्या है मामला?
2006 में कांग्रेस सरकार द्वारा लागू किए गए वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत आदिवासियों और वनवासियों को अपने पारंपरिक जंगलों पर अधिकार दिया गया था। यह कानून ग्राम सभाओं को अधिकार देता है कि वे प्रस्ताव पारित कर वन पट्टों में रह रहे आदिवासियों को अधिकार सौंप सकें।
हालांकि, 2008 में कुछ NGOs और सेवानिवृत्त अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस कानून को गलत बताया और कहा कि वनों पर आदिवासियों का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा आदेश जारी करते हुए देशभर के आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल करने का निर्देश दिया, लेकिन भारी विरोध के बाद इस आदेश पर रोक लगा दी गई।
अब क्या है चुनौती?
2020 में “वाइल्डलाइफ फर्स्ट” नामक एक संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर वन अधिकार अधिनियम को पूरी तरह से खारिज करने की मांग की। अब 2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट यह तय करेगा कि इस कानून की वैधता बनी रहेगी या आदिवासियों को उनके ही जंगलों से बेदखल कर दिया जाएगा।
राजनीतिक प्रतिक्रिया:
आदिवासी कांग्रेस के चेयरमैन डॉ. विक्रांत भूरिया ने इस मुद्दे को लेकर सरकार और न्यायपालिका का ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने कहा कि यह केवल कानूनी मामला नहीं, बल्कि आदिवासी समुदाय की पहचान, संस्कृति और आजीविका का सवाल है।
क्या होगा आगे?
अब देशभर की निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं। यदि वन अधिकार अधिनियम कमजोर होता है, तो लाखों आदिवासियों को अपने पारंपरिक निवास स्थानों से विस्थापित किया जा सकता है। वहीं, इस कानून को बनाए रखने के लिए कई संगठनों और आदिवासी समूहों ने विरोध प्रदर्शन तेज कर दिया है।